फारस के शाह के पास एक बेशकीमती अंगूठी थी। एक दिन मनबहलाव
के लिए उसने वह अंगूठी शीराज की बड़ी मस्जिद के गुंबद के ऊपर टंगवा दी
और घोषणा की कि जो तीरंदाज अपना तीर इस अंगूठी के पार निकाल देगा,
अंगूठी उसकी हो जाएगी। दूर दूर से तीरंदाज आते और निशाना लगाते। लेकिन
कोई भी अपना तीर अंगूठी के पार नहीं निकाल सका। जो सबसे दक्ष तीरंदाज
थे और बरसों से साधना कर रहे थे, उनके तीर भी बामुश्किल अंगूठी को इधर-
उधर से छू-भर पाए।
एक दिन एक बच्चा घर की छत पर सींक का तीरकमान लिए खेल रहा
था। उसने यूं ही हवा में तीर चलाया और हवा के झोंके से लहराकर तीर सीधा
उस मस्जिद की दिशा में जाकर अंगूठी के पार निकल गया। अब तो धूम मच
गई। शाह ने उस बच्चे को अंगूठी दी और भी तमाम उपहार दिए।
बच्चे ने अपना तीरकमान तोड़कर फेंक दिया और बोला, "अब मैं तीरंदाजी
छोड़ रहा हूं। इस कारनामे के बाद मुझे तीरंदाजी में कुछ भी हासिल करना
बाकी नहीं रहा।"
दिग्गज तीरंदाज आज तक नहीं समझ पाए कि उनकी बरसों की साधना
से जो महारात उन्हें हाथ नहीं लगी वह एक बच्चे को यूं ही कैसे मिल गई?
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