रंगुजी नामक शिष्य कई गुरुओं के पास गया
लेकिन कहीं भी उसे संतोष
नहीं हुआ। भटकते-भटकते वह एक दिन संत तुकाराम के पास पहुंचा और
उनसे मंत्र ग्रहण कर वहीं अन्य शिष्यों के साथ रहने लगा।
दो तीन वर्ष निकल गए। गुरु ने
उससे कुछ भी नहीं कहा। अन्य शिष्यों
को भी वे कुछ नहीं कहते थे। संत तुकाराम तो महान सरल आत्मा थे। वह तो
हमेशा ध्यान में ही रहते थे। रंगुजी ने सोचा कि यहां भी मुझे कुछ मिलने वाला
नहीं है। सुना है, गुरु समर्थ रामदास बड़े पहुंचे हुए महात्मा हैं। यह सोचकर वह
समर्थ रामदास ने पूछा, "तू तो संत तुकाराम के पास रहता था न? यहां
क्यों
आया?"
रंगुजी बोला, "मुझे वहां अच्छा नहीं लगा। मैंने तीन साल वहां निकाले,
लेकिन संत तुकाराम ने मुझे कुछ भी नहीं बताया न सिखाया। वह तो सारा दिन
भजन-पूजन-ध्यान करते
हैं, शिष्यों की तरफ तो देखते भी नहीं।'
रामदास ने कहा, "तुम संत तुकाराम के शिष्य हो। उनकी स्वीकृति के
बिना मैं तुम्हें अपना शिष्य कैसे बना सकता हूं।"
रंगुजी स्वीकृति के लिए
संत तुकाराम के पास गया।
संत तुकाराम के पास गया।
संत तुकाराम ने कहा, "जब दीपक में ही तेल न हो तो माचिस जलाने से
क्या होगा?"
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